किला

"उन शानदार ऊंची दीवारों को ग़ौर से देखो ,
कई किस्से इनमें अब भी ज़िंदा हैं| "

इन चंद शब्दों के फेर से अब तक किसी बड़े किले की छवि, आँखों में छा गई होगी। हम अक्सर यह भूल जाते हैं कि कुछ किले दिखाई कम और महसूस ज्यादा होते हैं-  अपने द्वारा बनाए गए किले । ईन किलों के मज़दूर भी हम , मालिक भी हम और अंत में कैदी भी हम । निर्माण कब शुरू होती है ,पता नहीं चलता लेकिन उसकी मजबूती समझने के लिए बस वक्त की बदलती हवाएँ काफी है ।

इस किले की दीवारें , अनेक प्रकार की होती हैं- उसूलों और आदर्शों की दीवारें , कुछ गल्तियों और पश्चाताप की दीवारें , फैसलों पर खड़ी कुछ दीवारें , स्वाभिमान ,अहम, घमंड की ईंटों से बनी दीवारें , कुछ दीवारें तो यह समाज और कुछ लोग हमें बनाने पर मजबूर कर देते हैं । अजीब या यूँ कहूँ अटपटी बात है ये कि अक्सर हम देखते हैं की बेघर मज़दूर ही मकान बनाते हैं , पर किला - किला तो हर कोई बनाता है |

कभी-कभी कुछ हिस्से , महसूस तो होते ही है और दिख भी जाते हैं। अब आप ही बताएँ , भला कौन मुस्कान की तालाब के पार ईर्ष्या के द्वार खोल पाया है ? लेकिन इसका यह अर्थ बिलकुल भी नहीं की पूरा किला ही तोड़ दिया जाए । कोई कैसे भूल सकता है कि जब पूरी दुनिया आपके आत्मविश्वास की परीक्षा ले रही थी , तब उनके कठोर वार से इसी किले का आसरा था ।

क्यूँ ना आज अपने इसी किले की एक सैऱ लगाए , कुछ पुराने दीवारों और द्वारों को गौर से देखें , एक -दो में सेंध लगाएँ .... और इस किले को और ज्यादा शानदार बनाए।

" आँसुओं का पानी कहीं इकट्ठा मिलेगा यहाँ ,
तो खुशियों के फूलों का बाग़ भी है...
स्वाभिमान का सिंहासन जहाँ चमकता है,
हार के कुछ अँधेरे सुरंगों का रास्ता भी है यहाँ ।

यह किला ही ऐसा है -
मजदूर भी हम
मालिक भी हम
और अंत में
कैदी भी हम । "

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