दस्तक

घड़ी की सूई की टिकटिक ,
और दिल की बेकाबू धड़कनें
एक अजब-सा आना -बाना बुन रहे थे।
नीली मोतीयां , आसूओं के सैलाब में
अनगिनत गोतें खा रहीं थीं ,
नए छाप छोड़ जाए तो आकर ज़रा ,
वक़्त की रेत पर से पुराने छाप जो मिट गए थे।

होंठों पर अब एक ही नाम चिपका हुआ था ,
पर लफ़ज़ों को आवाज़ न मिल पा रहा थे
कानों को दूर डाली पर बैठी कोयल का गाना
आज कौए के कलरव सा ना भाया ,
जानी - पहचानी आहटों , हसी- ठहाकों कों
एक दस्तक का इन्तज़ार था ।

चूल्हे पर आँच अभी तक जल रही थी,
पकवानों के ख़ूशबू से महक रहा था हर कोना
जीप की गड़गड़ाहट की आवाज़ आई,
फिर बिजली-सी आज वो दौड़ी ।

चार कंधों पर आया उसका लाल था ।
ख्वाहीश उसकी यही रह गई थी बाकी ,
माँ के हाथ से वो एक निवाला छूट गया था
आज पहली और आखिरी बार उसके दस्तक ना पड़े
और इन्हीं दस्तकों सा अनमोल ,
यादों का कारवाँ व़क्त की राहों से ग़ुज़र गया ।

वही निवाला उसे माँ की आखिरी मुस्कान के साथ मिला,
फिर अाँसुओं की धारा चौखट पार हुई ,
लेकिन एक दस्तक का इन्तज़ार उम्र पार ना हुआ ।

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