नाराज़गी

कितनी बार ऐसा हुआ कि आप किसी दोस्त या किसी अपने से रूठे हो? उनकी किसी बात पे नाराज़ हुए हो? 

आज मैं भी नाराज़ हूँ | क्या करें जब रिश्ता ही ऐसा है कि चाहे-अनचाहे, हम दोनों के बीच ऐसी नाराज़गी कभी -कभी आ ही जाती है | सबसे दिलचस्प बात यह है कि उसको कभी स्थान, काल या पात्र का आभास ही नहीं होता है - कहीं भी, कभी भी रूठ गए! 

अब आप आज का हाल ही देख लो- हस्ते-मुस्कराते दोस्तों से भरे कमरे में थी | जैसे ही फोन देखने बाहर आई, उसी दरमियाँ दबे पाव नाराज़गी भी आ गई हमारे बीच | कभी कभी तो ऐसा लगता है जैसे नाराज़गी बिल्ली जैसी है | हाँ, कभी-कभी तो काली बिल्ली जैसी है- रास्ता काट दे तो रास्ता बदलना पड़ता है, या तो किसी और के गुज़रने का इन्तज़ार करना पड़ता है | कुछ हालातों में वह सही भी होता है- अपने से पहले वक़्त, इंसान या परिस्थितियों को गुज़रने देना चाहिए | 

ख़ैर, जैसे ही उस कमरे में वापस गई, उसने ऐसा ताना मारा कि मन कर रहा था तांडव करूँ पर असलियत में किसी तरह कोशिश कर रही थी कि एक मुस्कुराता हुआ चेहरा लेके जल्द से जल्द निकल जाऊँ | मुझे लगा जैसी ही अपने कमरे में जाऊँगी, वहाँ किसी और को न देख मुझ पर हमला करेगा |  मैंने सोचा थोड़ी देर घूम के वापस आती हूँ,  शायद मूड थोड़ा ठीक हो जाएँ | जैसे ही वापस गई, कमरे में एक अलग तरह का सन्नाटा था | मेरा मन बैठ गया- आज की रात फिर 'वैसी' होने वाली है | मेरे दिमाग के घोड़े दौड़ने लगे- खाना, किताबें, गाना,  आखिर आज किस से बात बनेगी? 

अचानक, घंटी बजी और एक पुराने लेकिन नापसंद रिश्तेदार की तरह सर दर्द आ गया | चलो,  अब यही होना बाकी रह गया था | सर दर्द की सेवा में नींद को तो आना ही था- इसी बीच हमारे दरमियाँ नाराज़गी वाली बिल्ली मेरे सिरहाने आकर सो गई | 

आप सोच रहे होंगे,  तो फिर उसका क्या हुआ? अब आपसे क्या छुपाना- हमारा तो पुराना रिश्ता है ! रूठना- मनाना चलता रहता है लेकिन कभी-कभी उसको मनाने से ज़्यादा आसान लोगों को मनाना लगता है - अकेलेपन से नाराज़गी थोड़ी ज़्यादा ही चुभती है | 


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