चुप्पी
चुप्पी को जब चुना है मैंने,
सुने को अनसुना करा है मैंने।
अब जब मनन करती हूँ उस क्षण का,
समझती हूँ अर्थ उसी बेचैन मौन का !
चुप्पी को जब चुना है मैंने,
एकाधिक प्रश्नों को ढूंढा है मैंने।
लेकिन जवाबों के शोर में,
मायना क्यूँ ग़ुम हुआ?
काँच की किरचों से बस,
ये दिल चोटिल हुआ।
चुप्पी अब चुना है मैंने,
स्थाई को फिर से आँकने ।
उड़ते पाखी को भी अभी,
कई बसेरे हैं ताकने !
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