घर
घर वहाँ है मेरा,
क्यूंकि घर लोगों में बसता है।
कहीं बेनाम ख़्वाहिशों में,
कहीं रगों में दौड़ते खून का वास्ता है।
कहतें हैं फासलों से नज़दीकियों का पता मिलता है,
पर क्या हमेशा हर कीचड़ में कमल का फूल खिलता है?
शायद अभी भी कुछ कमरों के भीतर,
कईंयों का दम घुटता है ।
कभी उसूलों के बने ग़ुरूर की चट्टान हूँ,
कभी वक़्त और हालातों की मारी चुभती हुई धूल हूँ।
पर अजीब मंज़र ज़रा ये देखो-
किसी के लिए मर्ज़ हूँ पर अपनी ही मरीज़ हूँ,
अपने ही राज पाट में,
कभी मजबूरी तो कभी इच्छाओं की कनीज़ हूँ ।
आँसुओं की धार में यादों की अस्थियाँ अब बहती नहीं,
सवाल की किरचें अब हालातों को चुभती नहीं,
शायद अब समझ में आया -
वो मकान मेरा नहीं,
वो मुक़ाम मेरा नहीं।
वो मकान मेरा नहीं,
वो मुक़ाम मेरा नहीं।
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