शून्य
वो बीत चुका था,
पर गुज़रा नही ।
आया बनके एक हसीन झोंका,
तूफान बन उड़ा ले गया,
तिनके सी मेरी खुशिया कई ।
पीड़ा नैनो से बहते रहे,
जैसे कोई अविरल झरना ।
सुख और समन्वय ने,
मन से विपरीत दिशाओ पर बिठाया धरना ।
शून्य सा अनंत लगने लगा था,
उसके चले जाने का पीड़ा ।
मन फिर भी क्यू दोहराए,
जो रह गयी अनकही?
न याद रहा किताबों का ज्ञान,
न बड़े-बुजुर्ग के उपदेश भी?
वजह- बेवजह, वक्त - बेवक्त,
उस एक नाम पर वापस आना ।
आदी से अंत बनकर भी,
क्यू वह शून्य बन गया था मेरा?
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