बूँदों का दर्पण
जब धीरे से कीवाड़ खोलकर उसने देखा कि हवाओं की चुनरीया लहराकर नीले आसमान ने बादलों का काजल लगाया ,तब थोड़ी देर बाद वो भी दौड़कर बाहर आई | हल्की- हल्की बूँदें , उसके पैरों के छाप मिटाने की साज़िश में जुट गए ताकि उसके पीछे -पीछे कोई न आए | लँबे, घने ज़ुल्फों के कई तारीफ़ें सुनी तो थी पर जब सच में देखा - हाय ! इन लटों में उजालें भी ग़ुम हो गए | देखते ही देखते ,एक बड़ी सी बूँद ने उसके माँग पर अपने आप को एक अनमोल नगीने -सा सजा लिया | जैसे - जैसे बारिश बढ़ने लगी , उसके लिए बूँदों का दर्पण तैयार हो गया |
बहुत नायाब थी उसकी सजावट- भीगीे घने ज़ुल्फें ,झरने सी खेल रहीं .. आँखों में चुलबुलापन और खुशियों का वो नूर, आहा ! सावन का गाना गुनगुनाते हुए, उसके लबों पर अलग ही रंग चढ़ रहा था | असमंजस की बात है - बहार आसमानों में छाया था या यहाँ ज़मीन पे ?
उसके नर्म हथेलियों पर यह बारिश अपने कुछ पुराने राज़ खोल रहीं थी | जब अचानक बिजली गिरी , तब डर के मारे सिकुड़ गई तो ऐसा लगा मानो किसी पंछी को पिंजरे में कैद कर दिया हो | लेकिन वो किसी पिंजरे की मोहताज कहां , हाथों के पँख से फिर से अपने कदमों तले नए आसमान नाप रही थी | टिप- टिप बरसती बूँदें उसके पायल की झंकार बन गए |
हवाओं की चुनरिया ओढ़े , जब बूँदों के दर्पण में उसकी एक झलक को इन नश्वर आँखों में उतारना चाहा तब पता चला कि सादगी का वो अक्स , शायद सदियों के लिए रूह के पार हो गई थी | सजदे में अपने आप लफ़्ज़ कुछ यूँ निकले -
व़क्त की इन रेतों पर , ऐ ख़ुदा गर तेरी रज़ा हुई ..
तो कुछ कदमों के निशाँ मेरे भी हो उसके कदमों के साथ |
तो कुछ कदमों के निशाँ मेरे भी हो उसके कदमों के साथ |
Comments
Post a Comment